जब अहंकार और वीरता की असली परीक्षा हुई
कथा:
महाभारत के वनवास काल में पांडव जब एक अज्ञातवास की तैयारी कर रहे थे, तब अर्जुन ने निश्चय किया कि वह अजेय दिव्यास्त्रों का अभ्यास करेगा, ताकि आगामी युद्ध में विजयी हो सके।
इसके लिए अर्जुन ने हिमालय पर कठोर तप किया और भगवान शिव को प्रसन्न करने का संकल्प लिया।
कई महीनों के तप के बाद, एक दिन एक राक्षस के रूप में शिव स्वयं अर्जुन की परीक्षा लेने आए।
एक भयंकर राक्षस वनवासियों को मारता हुआ शिव मंदिर की ओर बढ़ा। अर्जुन ने उसे रोका और दोनों के बीच युद्ध हुआ।
अर्जुन ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी, लेकिन राक्षस (भगवान शिव) पर कोई असर नहीं हुआ। अंत में अर्जुन ने पाँव पकड़ लिए और प्रार्थना की:
> “यदि मैं सच्चा योद्धा हूँ, और मेरा तप निष्कलंक है,
तो आप मुझे दर्शन दीजिए — चाहे मेरा जीवन ले लीजिए।”
उसी क्षण भगवान शिव ने मुस्कुराते हुए अपना असली रूप प्रकट किया और कहा:
> “अर्जुन, तुमने केवल अपने बल से नहीं,
अपने समर्पण और नम्रता से मुझे जीत लिया।”
उन्होंने अर्जुन को पाशुपतास्त्र प्रदान किया — एक ऐसा दिव्यास्त्र जो केवल सच्चे तपस्वी और धर्मपथी को ही मिलता है।
कथा का सार:
1. परम शक्ति तक पहुँचने के लिए केवल बल नहीं, विनम्रता और भक्ति चाहिए।
2. ईश्वर परीक्षा लेते हैं रूप बदलकर — पहचानना ही सच्ची साधना है।
3. विनम्र योद्धा, सच्चा विजेता होता है।
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आज का संदेश:
कठिन परिश्रम ज़रूरी है, पर उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है अहंकार से मुक्त होना।
जब भी सफलता से पहले संकट आए, समझिए — भगवान परीक्षा ले रहे हैं।
अपने जीवन में कभी किसी “अजनबी चुनौती” को छोटा न समझें — वह ईश्वर भी हो सकता है।
अंत में:
“अर्जुन को शिव ने आशीर्वाद नहीं दिया —
बल्कि अर्जुन ने अपने चरित्र से आशीर्वाद प्राप्त किया।”
जय महादेव | जय अर्जुन | जय धर्म