प्रारंभ: वैकुण्ठधाम के द्वारपाल
जय और विजय भगवान श्रीहरि विष्णु के द्वारपाल थे। वे अत्यंत बलशाली, तेजस्वी और भगवान के परम भक्त थे। एक दिन की बात है, जब सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार जैसे ब्रह्मर्षि, वैकुण्ठधाम में भगवान विष्णु के दर्शन के लिए पहुंचे। वे बालक रूप में थे, परन्तु ज्ञान और तपस्या में अत्यंत महान। जय और विजय ने उन्हें द्वार पर ही रोक लिया क्योंकि वे भगवान विष्णु के विश्राम के समय पहुंचे थे।
सनकादि ऋषियों का श्राप
जय-विजय का यह व्यवहार सनकादि ऋषियों को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कहा, “तुम दोनों अभिमानी हो गए हो, भगवान के सेवक होकर भी अहंकार से भरे हुए हो। इसलिए तुम वैकुण्ठ से गिरोगे और जन्म-मृत्यु के संसार में जन्म लोगे।”
जय और विजय ने तुरंत अपने इस अपराध के लिए क्षमा माँगी। तभी भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए। उन्होंने ऋषियों से निवेदन किया कि वे उनके सेवकों को क्षमा करें, लेकिन ऋषियों का श्राप अटल था। तब भगवान ने जय-विजय से कहा, “तुम दोनों को यह श्राप स्वीकार करना होगा, परन्तु यह भी तुम्हारी इच्छा पर निर्भर करेगा – या तो तुम सात जन्म तक मेरे भक्त बनकर जन्म लेते रहो, या तीन जन्म तक मेरे शत्रु बनकर जन्म लो और उसके बाद वापस मेरे धाम लौट आओ।”
जय-विजय ने कहा, “प्रभु! हम आपसे दूर नहीं रह सकते। यदि शत्रु बनकर भी आपके चरणों में शीघ्र लौटना संभव हो, तो हमें तीन जन्म शत्रु रूप में स्वीकार हैं।”
तीन जन्मों की कथा
1. हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु (सत्य युग)
पहले जन्म में जय और विजय ने असुरों के रूप में जन्म लिया – जय बने हिरण्याक्ष, और विजय बने हिरण्यकशिपु।
हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को पाताल में ले जाकर छुपा दिया था। तब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध किया।
हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को विष्णु-भक्ति के कारण अनेक यातनाएं दीं। अंततः भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लेकर उसका अंत किया।
2. रावण और कुंभकर्ण (त्रेता युग)
दूसरे जन्म में जय और विजय ने राक्षस रूप में जन्म लिया – जय बने रावण, और विजय बने कुंभकर्ण।
रावण ने माता सीता का हरण किया, जिससे भगवान विष्णु ने राम अवतार लेकर उसे युद्ध में मारा।
कुंभकर्ण भी श्रीराम से युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ।
3. शिशुपाल और दंतवक्र (द्वापर युग)
तीसरे जन्म में वे जन्मे – शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में।
शिशुपाल ने बार-बार श्रीकृष्ण का अपमान किया। अंततः श्रीकृष्ण ने राजसभा में उसका वध किया।
दंतवक्र भी भगवान कृष्ण का विरोधी बना और युद्ध में मारा गया।
मोक्ष और वैकुण्ठ वापसी
तीन जन्मों में भगवान विष्णु के हाथों मरकर अंततः जय और विजय को पुनः वैकुण्ठ में स्थान प्राप्त हुआ। उन्होंने यह अनुभव किया कि चाहे भक्त बनकर रहें या शत्रु बनकर, प्रभु की कृपा ही जीवन का परम उद्देश्य है।
सीख (संदेश):
भगवान अपने सेवकों को कभी नहीं छोड़ते, चाहे वे भूलवश ही क्यों न उनसे विमुख हो जाएं।
अहंकार स्वयं का नाश का कारण बनता है, लेकिन यदि प्रायश्चित और भक्ति सच्ची हो, तो मोक्ष संभव है।
यह कथा यह भी बताती है कि भगवान अपने विरोधियों को भी मोक्ष दे सकते हैं, यदि उनके मन में भगवान के प्रति स्थायी चिंतन और तादात्म्य हो।


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