महाराजा अग्रसेन

परिचय

महाराजा अग्रसेन प्राचीन भारत के ऐसे महान राजा माने जाते हैं जिनका नाम सामाजिक न्याय, समानता, दान और अहिंसा की परंपरा से जुड़ा हुआ है। वे सूर्यवंश में उत्पन्न हुए थे और उन्हें वैश्य समाज, विशेषकर अग्रवाल तथा अग्रहरि समुदाय का आदिपुरुष माना जाता है। उनका संबंध हरियाणा के अग्रोहा नगर से है, जिसे उन्होंने स्वयं स्थापित किया था।
अग्रसेन केवल एक शासक ही नहीं बल्कि एक दूरदर्शी समाज सुधारक भी थे। उन्होंने समाज को यह संदेश दिया कि हर व्यक्ति को समृद्ध बनाने के लिए सामूहिक सहयोग आवश्यक है। उनकी वही भावना आगे चलकर एक रुपया और एक ईंट की परंपरा में परिणत हुई, जिसने अग्रवाल समाज को संगठन और व्यापारिक सफलता दिलाई।

जीवन परिचय

महाराजा अग्रसेन का जन्म सूर्यवंशी राजा वल्लभ सेन के घर हुआ। उनके जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी पौराणिक कथाओं, लोककथाओं और परंपराओं में मिलती है। महाराजा अग्रसेन भगवान राम के पुत्र कुश के 34 वीं पीढ़ी के हैं । 15 वर्ष की आयु में, अग्रसेन जी ने पांडवों के पक्ष से महाभारत युद्ध लड़ा था । भगवान कृष्ण ने टिप्पणी की है कि अग्रसेनजी कलयुग में एक युग पुरुष और अवतार होंगे जो जल्द ही द्वापर युग की समाप्ति के बाद आने वाले हैं । अग्रसेन सौरवंश के एक वैश्य राजा थे जिन्होंने अपने लोगों के लाभ के लिए वानिका धर्म अपनाया था । बचपन से ही उनमें न्यायप्रियता, करुणा और परोपकार की भावना थी।
कहा जाता है कि बचपन में ही वे अन्याय देखकर विचलित हो जाते थे और गरीबों की सहायता करते थे। उनके स्वभाव में युद्धकला के साथ-साथ धर्म और अध्यात्म का भी गहरा प्रभाव था। यही कारण है कि बड़े होकर वे केवल शासक ही नहीं बल्कि समाज सुधारक और मार्गदर्शक भी बने।

विवाह एवं इन्द्र प्रकरण

जब नागराज की पुत्री माधवी का स्वयंवर हो रहा था उस समय महाराज अग्रसेन और बाकी देश देश के राजा और देवलोक से देवता भी पधारे थे राजकुमारी माधवी की सुंदरता देखकर इंद्र भी रह ना पाए वह भी उस स्वयंवर में आए थे परंतु नागराज की पुत्री माधवी ने महाराज अग्रसेन को अपना पती स्वीकार करके उनके गले में वरमाला डाल दी जिसके कारण देवराज इंद्र उनसे ईर्ष्या होने लगी और उन्होंने उनके राज्य में वर्षा रुकवा दिया और जब राज्य में अकाल पड़ने लगा तो क्योंकि अग्रसेन धर्म-युद्ध लड रहे थे तो उनका पलडा भारी था जिसे देख देवताओं ने नारद ऋषि को मध्यस्थ बना दोनों के बीच सुलह करवा दी

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तपस्या और लक्ष्मी कृपा

अग्रसेन का जीवन केवल भौतिक शासन तक सीमित नहीं था। वे अध्यात्म और तपस्या में भी विश्वास रखते थे। एक समय उन्होंने काशी में जाकर घोर तप किया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर माता लक्ष्मी प्रकट हुईं।
लक्ष्मी ने अग्रसेन को आशीर्वाद दिया और उन्हें परोपकार तथा व्यापार को जीवन का आधार बनाने की प्रेरणा दी। देवी ने कहा कि उनके वंशज व्यापार में प्रसिद्ध होंगे और समाज सेवा में सदैव अग्रणी रहेंगे। और माता ने उन्हे एक नये रज्य कि स्थापना करने को कहा। 

राज्य स्थापना

उन्होने अपने नये राज्य की स्थापना के लिये उन्होने अपनी रानी माधवी के साथ सारे भारत का भ्रमण किया। इसी दौरान उन्हें एक जगह एक शेरनी एक अपने बच्चे को जन्म देते दिखी, कहते है जन्म लेते ही शेर के बच्चे ने महाराजा अग्रसेन के हाथी को अपनी माँ के लिए संकट समझकर तत्काल हाथी पर हमला कीया । उन्हें लगा कि यह दैवीय संदेश है जो इस वीरों की भूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने का संकेत दे रहा है। ॠषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रोदय रखा गया और जिस जगह शावक का जन्म हुआ था उस जगह अग्रोदय की राजधानी अग्रोहा की स्थापना की गई। यह जगह आज भी हरियाणा में हिसार के पास स्थित है आज भी अग्रवाल समाज में यह स्थान उनके पांचवें धाम के रूप में पूजा जाता है । आज के समय में अग्रोहा विकास ट्रस्ट ने बहुत से सुंदर मंदिरों धर्मशाला आदि का निर्माण किया है जो आज भी समाज का भला कर रहा है| 

कथाएँ

अग्रसेन से जुड़ी सबसे प्रसिद्ध कथा “ईंट और रुपया” की है। परंपरा है कि जब भी कोई नया परिवार उनके राज्य में बसने आता, तो समाज का हर परिवार उसे एक ईंट और एक रुपया देता। ईंट से वह परिवार घर बनाता और रुपया से व्यापार शुरू करता। इस परंपरा ने आपसी सहयोग और सामूहिक विकास की नींव रखी।
इसके अलावा, अग्रसेन के बारे में कहा जाता है कि वे अहिंसा के समर्थक थे। वे युद्ध से बचना चाहते थे और समाज में शांति और सौहार्द्र स्थापित करने का प्रयास करते थे। उनके शासनकाल में प्रजा सुखी और सम्पन्न रही।

18 यज्ञ और साढ़े सत्रह गोत्र

अग्रसेन ने अपने शासनकाल में 18 महायज्ञ किए। इन यज्ञों से जुड़े 18 ऋषियों के नाम पर अग्रवालों के 18 गोत्र बने।परंतु इस साढ़े 17 गोत्र इसलिए कहा जाता है | क्योंकि जब 17 यज्ञ  पूर्ण हो चुके थे और उसे समय यज्ञों  में पशु बलि दी जा रही थी परंतु जब आखिरी 18  यज्ञ के समय महाराज अग्रसेन को यह बात बहुत ही बुरी लगती है की पशुओं की हत्या हो रही है। जिसे उन्होंने पशु बलि रुकवा दिया और कहा कि मेरे इस राज्य में कभी भी पशु बलि नहीं दी जाएगी और कोई भी व्यक्ति मांस नहीं खाएगा इसलिए अग्रवाल समाज में मांस खाना मना है बाद में इस परंपरा का विस्तार हुआ और इसे “साढ़े सत्रह गोत्र” कहा गया।
ये गोत्र आज भी अग्रवाल समाज की पहचान बने हुए हैं। विवाह संबंधों और सामाजिक पहचान में इनका विशेष महत्व है। इस व्यवस्था ने समाज को एकता, अनुशासन और संगठन दिया।

उत्तर जीवन

महाराजा अग्रसेन ने अपने जीवन के उत्तरार्ध में तपस्या और सन्यास का मार्ग चुना। उन्होंने राज्य की जिम्मेदारी अपने पुत्र विभु को सौंप दी।
कहा जाता है कि उन्होंने अपना शेष जीवन तपस्या में बिताया और अंततः अग्रोहा में ही समाधि ली। उनका त्याग और परोपकार आज भी समाज के लिए प्रेरणा है।

अग्रवाल समाज

महाराजा अग्रसेन को अग्रवाल समाज का जनक माना जाता है। समाज में आज भी उनके आदर्शों का पालन होता है। “एक रुपया और एक ईंट” की परंपरा आज भी एक प्रतीक के रूप में जीवित है। यह समाज की सहयोग भावना को दर्शाती है।

अग्रसेन की बावली

दिल्ली में स्थित “अग्रसेन की बावली” एक ऐतिहासिक धरोहर है। इसे महाराजा अग्रसेन और अग्रवाल समाज से जोड़ा जाता है। बावली प्राचीन स्थापत्य कला का सुंदर उदाहरण है और दिल्ली के प्रमुख पर्यटन स्थलों में गिनी जाती है। जो दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास हैली रोड में स्थित है। यह 60 मीटर लम्बी व 15 मीटर चौड़ी बावड़ी है, जो पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम 1948 के तहत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में हैं। सन 2012 में भारतीय डाक अग्रसेन की बावली पर डाक टिकट जारी किया गया।

डाक टिकट

भारत सरकार ने महाराजा अग्रसेन की स्मृति में डाक टिकट भी जारी किया। इस डाक टिकट के माध्यम से उनके योगदान को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दी गई और आने वाली पीढ़ियों तक उनके आदर्श पहुँचाए गए।

भारत सरकार द्वारा सम्मान
24 सितंबर 1976 को भारत सरकार ने महाराज अग्रसेन के नाम पर 25 पैसे का एक डाक टिकट भी जारी किया | परसों 1994 ईस्वी में भारत सरकार ने दक्षिण कोरिया से 340 करोड रुपए का एक विशाल तेल वाहक जहाज खरीद जिसका नाम उन्होंने “महाराज अग्रसेन” रखा इस जहाज की क्षमता 18 लाख टन है| और राष्ट्रीय राजमार्ग -10 का आधिकारिक नाम महाराजा अग्रसेन पर है।

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